Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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प्रभात का समय था। लाला प्रभाशंकर ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर घर चले गये थे। प्रेमशंकर अपनी चारपाई पर तकिये के सहारे बैठे हुए हाजीपुर की तरफ चिन्तामय नेत्रों से देख रहे थे। चार दिन पहले जहाँ एक हरा-भरा लहलहाता हुआ गाँव था, जहाँ मीलों तक खेतों में सुखद हरियाली छाई हुई थी, जहाँ प्रातःकाल गाय-भैसों के रेवड़ के रेवड़ चरते दिखाई देते थे, जहाँ झोंपड़ों से चक्कियों की मधुर ध्वनि उठती थी और बाल वृद्ध मैदानों में खेलते-कूदते दिखायी देते थे, वहाँ एक निर्जन मरुभूमि थी। गाँव के अधिकांश प्राणी दूसरे गाँव में भाग गये थे और कुछ लोग प्रेमशंकर के झोंपड़े के सामने सिरकियाँ डाले पड़े थे। न किसी के पास अन्न था, न वस्त्र, बड़ा शोकमय दृश्य था। प्रेमाशंकर सोचने लगे, कितनी विषम समस्या है! इन दीनों का कोई सहायक नहीं। आये दिन इन पर यही विपत्ति पड़ा करती है। और ये बेचारे इसका निवारण नहीं कर सकते। साल-दो साल में जो कुछ तन पेट काटकर संचय करते हैं। वह जलदेव को भेंट देते हैं। कितना धन, कितने जीव इस भँवर में समा जाते हैं, कितने घर मिट जाते हैं, कितनी गृहस्थियों का सर्वनाश हो जाता है और यह केवल इसलिए कि इनको गाँव के किनारे एक सुदृढ़ बाँध बनाने का साहस नहीं है। न इतना धन है, न वह सहमति और सुसंगठन है जो धन का अभाव होने पर भी बड़े-बड़े कार्य सिद्ध कर देता है। ऐसा बाँध यदि बन जाये तो उससे इसी गाँव की नहीं, आस-पास के कई गाँवों की रक्षा हो सकती है। मेरे पास इस समय चार-पाँच हजार रुपये हैं। क्यों न इस बाँध में हाथ लगा दूँगा। गाँव के लोग धन न दे सकें, मेहनत तो कर सकते हैं। केवल उन्हें संगठित करना होगा। दूसरे गाँव के लोग भी निस्सन्देह इस काम में सहायता देंगे। ओह, कहीं यह बाँध तैयार हो जाये तो इन गरीबों का कितना कल्याण हो!

यद्यपि प्रेमशंकर बहुत अशक्त हो रहे थे, पर इस विचार ने उन्हें इतना उत्साहित किया कि तुरन्त उठ खड़े हुए और लोगों के बहुत रोकने पर भी हाथ में डण्डा लेकर नदी की ओर बाँध-स्थल पर निरीक्षण करने चल खड़े हुए। जेब में पेंसिल और कागज भी रख लिया। कई आदमी साथ हो लिए। नदी के किनारे बहुत देर तक रस्सी से नाप-नाप कर कागज पर बाँध का नक्शा खींचते और उसकी लम्बाई-चौड़ाई, गर्भ आदि का अनुमान करते रहे। उन्हें उत्साह के वेग में यह काम सहज जान पड़ता था, केवल काम छेड़ देने की जरूरत थी। उन्होंने वहीं खड़े-खड़े निश्चय किया कि वर्षा समाप्त होते ही श्रीगणेश कर दूँगा। ईश्वर ने चाहा तो जाड़े में बांध तैयार हो जायेगा। बाँध के साथ-साथ गाँव को भी पुनर्जीवित कर दूँगा। बाढ़ का भय तो न रहेगा, दीवारें मजबूत बनाऊँगा और उस पर फूस की जगह खपरैला का छाज रखूँगा।

भवानसिंह ने कहा– बाबू जी, यह काम हमारे मान का नहीं है।

प्रेमशंकर– है क्यों नहीं; तुम्हीं लोगों से यह पूरा कराऊँगा। तुमने इसे असाध्य समझ लिया, इसी कारण इतनी मुसीबतें झेलते हो।

भवानी– गाँव में आदमी कितने हैं?

प्रेम– दूसरे गाँव वाले तुम्हारे मदद करेंगे, काम शुरू तो होने दो।

भवानी– जैसा बाँध आप सोच रहे हैं, पाँच-छह हजार से कम में न बनेगा।

प्रेम– रुपयों की कोई चिन्ता नहीं। कार्तिक आ रहा है, बस काम शुरू कर दो। दो-तीन महीने में बाँध तैयार हो जायेगा। रुपयों का प्रबन्ध जो कुछ मुझसे हो सकेगा मैं कर दूँगा।

भवानी– आपका ही भरोसा है।

प्रेम– ईश्वर पर भरोसा रखो।

भवानी– मजदूरों की मदद मिल जाये तो अगहन में ही बाँध तैयार हो सकता है।

प्रेम– इसका मैं वचन दे सकता हूँ। यहाँ साठ-सत्तर बीघे का अच्छा चक निकल आयेगा।

भवानी– तब हम आपका झोंपड़ा भी यहीं बना देंगे। वह जगह ऊँची है, लेकिन कभी-कभी वहाँ भी बाढ़ आ जाती है।

प्रेम– तो आज ही भागे हुए लोगों को सूचना दे दो और पड़ोस के गाँव में भी खबर भेज दो।

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1 Comments

Gunjan Kamal

18-Apr-2022 05:31 PM

👏👌👌🙏🏻

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